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आदिवासियों समाज की बस्तर में सांस्कृतिक धरोहर – गौर मुकुट ….!
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आदिवासी परंपरा नृत्य आदिम सभ्यता का सबसे खूबसूरत अंग है। इसकी खूबसूरती मधुर संगीत और आकर्षक पोशाक से पल्लवित होती है। नृत्य के मनमोहक पहलुओं को बस्तर के आदिवासियों ने आज भी कुछ इस तरह समेट रखा है जैसे हजारों सालों बाद भी उसमे वहीं ताजगी और आनंद के भाव प्रदर्शित होता है।
प्रकृति पूजक इस समाज की सबसे अनोखी विशेषता इनके नृत्यों में प्रकृति के हर अंग का समावेश होना है। जंगलों में रहने वाले विशालकाय गौर के हाव भाव और उसके वीरोचित भाव भंगिमाओं को नृत्य के रूप में प्रदर्शित करता गौर नृत्य बस्तर का सबसे लोकप्रिय नृत्य है।
बस्तर की दंडामी माड़िया जनजाति ने इस गौर नृत्य को हजारों सालों से संरक्षित किया हुआ। इसी गौर नृत्य के कारण इस जनजाति को बायसन हार्न माड़िया भी कहा जाता हैं। यहां की वादियों में इस नृत्य में बजते ढोल की थाप चारो ओर गुंजायमान है। गौर नृत्य में सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र है गौर के सींगो से बना हुआ मुकुट।
गौर के चिकने काले सुनहरे सींगो को बांस की टोपी मे दोनो ओर बांध दिया जाता है। ऊपर की ओर भृंगराज पंछी के पंखों की कलगी तैयार कर बांध दी जाती है। मुख के सामने बिलकुल दूल्हे के सेहरे की तरह कौड़ियो की लड़ियां लगा दी जाती है जिससे नर्तक का चेहरा ढक जाता है। गले में बड़ा सा ढोल लटकाकर लय ताल के साथ नृत्य किया जाता है।
पुरुष गौर की तरह सिर हिलाते हुए वीरता का भाव लिए हुए नृत्य करता है। महिलाएं हाथ में लोहे की छड़ को धरती पर पटकते हुए पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ती है। लोहे की छड़ को जमीन पर पटका जाता है तो उसमे लगी लोहे की पत्तियॉ छन छन की आवाज करते हुए ढोल की थाप के साथ सुर मिलाती हुई प्रतीत होती है।
गौर मुकुट सिर्फ गौर के सींगो से ही तैयार किया जाता है। यह मुकुट प्रकृति के राजमुकुट की तरह सुशोभित है। अब ना गौर है और ना ही इस तरह के नये मुकुट बनाए जाते है। ये गौर मुकुट अब यहां के आदिवासियों की सबसे अनमोल धरोहर है। इस नृत्य को यहां की भावी पीढ़ी ने बखूबी निभाया है इस कारण यहां के मेले मड़ई में गौर नृत्य की धमक देखने को मिलती है।।

